
“नाना, मी साहेब झालो”
3956 13-May-2017, Sat
“अबे, हरिभाऊ, क्या बोल रहा है ये तू? हम लोग तो किसान है । खेती करना ही हमारे बच्चों को आयेगा । किताब पढ़ना उनका काम नही है । वो कभी भी अफसर नही बन सकते । सारी जिंदगी उनकी खेत के मिट्टी में खत्म हो जायेगी । किताब पढना और साहब बनना ये काम बडे घर के बच्चों का है । तू जरा चुप तो बैठ । कितनी धूप है यहाँ, और तू क्या बोल रहा है? ये लो तंबाकू, खावो और चूप बैठो ।” मजदुरी के काम करने वाला साथी हरिभाऊ को बोल रहा था । लगभग 1987 का साल था । हमारे यहाँ मेरे गाँव के पास सुखे के कारण लोगों के लिए कुछ मजदुरी के काम प्रशासन द्वारा शुरू किये गये थे । उस वक्त कि ये घटना है ।
दिनभर धूप में काम चलता रहता था । पिताजी अच्छी तरह से देख नही सकते थे । फटे हुये टोकरी के कारण पाँव को जख्म हो जाती थी । बहुत खून भी बह जाता था । लेकीन घाव पर कपडा बांधकर काम शुरू रखना पडता था । उसी दिन भी घुटने कि नीचे बडा घाव हो गया था । त्वचा फटी थी । दोपहर के वक्त खाना खाने के लिए सब मजदूर लोग किसी पेड के छाव में बैठकर खाना खाते थे । हम छोटे बच्चे भी दोपहर के लिए पाठशाला कि छुट्टी होने पर वहां खाना खाने के लिए आते थे । खाना खाने के बाद वहां लोगों मेँ उनकी बातेँ सुनकर बैठते थे । एक दिन खाना खाने के बाद पिताजी एक आदमी को पुछ रहे थे, “चंदर, ए कितना बडा काम चालू है ! इतने बडे काम के लिए कितना पैसा लगता है? इस सारे काम पर ध्यान देनेवाले, सारा पैसा देने वाले अफसर कितने बडे लोग है? ऐसा अफसर बनने के लिये क्या करना पडता है? कौनसी कक्षा तक पढना पडता है? क्या मेरा लडका भी ऐसा अफसर बन सकता है?” पिताजी के ये बोल सुनकर वो आदमी जोर-जोर से हंसने लगा । धूप के समय मेँ हरिभाऊ ने ये क्या शुरू किया है? खाना खाया है, अब चूप बैठना चाहिए, ऐसा वो सोचता था । लेकीन पांव को हुई जख्म और बहने वाला खून साफ करते करते पिताजी को ऐसा लगता था कि वो अपने तकदीर और दिल के दर्द को भी साफ कर रहे है ।
पिताजी को अंदर से बहुत दुख: लग रहा था । ऐसे विचार में एक दिन दोपहर को खाना खाने के बाद उन्होने मेरे हाथ को पकडा और बोले, “वो सारे अफसर लोग जहाँ बैठे है ना, वहाँ मुझे लेकर चल ।” मै पिताजी के हाथ को पकडकर उनको लेकर वहाँ गया । मजदुरी के ये सारे काम पर ध्यान रखने वाले सभी अफसर, ठेकेदार लोगों के लिये बैठने के लिए वहाँ एक पेड के पास बांस की चटाई से कमरा बनाया था । बाहर तो झुलसा देने वाली धूप थी । धुप के कारण सब लोग जहाँ छावं मिलती, वहाँ बैठ जाते थे । कोई सोते थे| हम दोनो ही नंगे पांव से चल रहे थे । हम वहाँ कमरे के पास पहुंच गये । वहाँ कुछ लोग सोये हुये थे, कोई आपस में बाते करते थे । कमरे के द्वार के पास हम खडे रहे । कमरे के अंदर की ठंडी हवा खूब मस्त लगती थी । वहाँ खडे रहना अच्छा लगता था । अंदर बैठे हुए अफसर लोगों को उंगली से दिखाकर पिताजी बोले, “यहाँ बैठे हुए सभी अफसर लोगों को एक बार देख ले । पढाई करने के बाद ऐसा अफसर बनने का मौका मिलता है और छाव में बैठकर काम कर सकते है । अगर पढाई ना करते तो, देख मेरी पांव की ओर,” ऐसे बोलकर पिताजी उनके पांव के घाव पर बंधा हुवा कपडा निकाला और वो जख्म दिखायी । पिताजी के पांव पर बडा घाव था । खून से पांव की त्वचा लथपथ हो गई थी । उस लथपथ जख्म देखकर मुझे मेरे दिल को कोई चीर रहा है, ऐसा लगा । पिताजी के पांव की जख्म बहुत बुरी तरह से दिख रही थी । कुछ ना देख सकने के कारण मेरे पिताजी को कितनी समस्याओं का सामना करना पडता था । पिताजी के आंखों का सागर दर्द भरे दुख: से भरा हुवा था और लगता था, कुछ न बोलते हुये भी मुझे कहता है, “बेटे, कुछ तो करके दिखावो जिंदगी में ।” मै कुछ भी ना बोल सका । थोडी देर बाद हम दोनो पीछे वापस आ गये । दोनोँ ही चुपचाप रहकर चलते थे । कोई भी कुछ नही बोलता था । लेकीन दिल की बात दिल को समझ गई थी । पिताजी ने कितने सीधे तरीके से उनके मन की बात मेरे मन में समा दी थी । जब माता और पिता अपने मन मेँ बडा सपना रखते है, तब वो सपना उनके बच्चों के मन मेँ भी धीरे धीरे आ जाता है । आंखो से अंधे होने वाले मेरे पिताजी और कानों से कुछ सुन ना सकने वाली मेरी माँने ऐसा कुछ सपना उनके दिल में रखा था और मै समझ भी ना पा सका उन्होने वो कब मेरे दिल में छोड दिया । ऐसे सबसे अलग होने वाले मेरे दिव्यांग माता और पिता का सपना पुरा करने मुझे अवसर मिला । धीरे धीरे पहले अध्यापक, बाद में राज्य प्रशासन में सहायक आयुक्त और उसके बाद केंद्रीय सेवा में आकर उनके सपने को चार चाँद लग गए ।
धन्य है ऐसे माताजी और पिताजी । “नाना, मी साहेब झालो” ( पिताजी, मै अफसर बन गया) इस मराठी किताब द्वारा उनके दर्दभरी, जिंदगीभर खुद से, समाज से, उपेक्षित जीवन से लडी हुई लडाई आप सभी के सामने रखने का मुझे अवसर मिला, इससे मै खुद को भाग्यशाली मानता हुँ ।